नमस्कार,
आज रविवार की पोस्ट चर्चा के साथ हम फिर उपस्थित हुए हैं। आज की पोस्ट मूल रूप में पहले दी गई है और उसके बाद उस पोस्ट का विश्लेषण दिया गया है।
इस पोस्ट को चयन करने के पीछे इसका शीर्षक और फिर उसमें दी गई सामग्री को आधार बनाया गया।
विचित्र होते हैं ये शब्द भी। प्रयोग के अनुसार सामने वाले को मोह सकते हैं तो कभी अर्थ का अनर्थ बनाकर भड़का भी सकते हैं। लखनवी शैली में यदि युवक युवती से "खादिम हूँ आपका" कहता है तो युवती प्रसन्न होती है किन्तु भूल से भी यदि "खादिम" के स्थान पर "खाविंद" शब्द का प्रयोग हो जाए अर्थात् युवक "खाविंद हूँ आपका" कह दे तो आप स्वयं ही सोच सकते हैं कि युवती पर क्या प्रतिक्रया होगी। लखनवी शैली की बात चली है तो आपको बता दें कि एक नवाब साहब ने निर्धन कवि को अपने महल में निमंत्रित किया था। नवाब साहब के द्वारा बारम्बार अपने शानदार महल को "गरीबखाना" कहने पर निर्धन कवि सोचने लगा कि जब ये अपने इतने बड़े महल को "गरीबखाना" कह रहे हैं तो मैं अपनी झोपड़ी को भला क्या कहूँ? अन्त में बेचारे ने नवाब साहब से कहा, "आपके यहाँ आकर बहुत प्रसन्नता हुई, आप भी कभी मेरे 'पायखाना' में आने का कष्ट कीजिएगा।"
जहाँ साहित्य तथा सामान्य बोल-चाल की भाषा में "सही शब्दों के प्रयोग" को उचित माना जाता है वहीं कानूनी दाँव-पेंचों वाले अदालती मामले में "शब्दों के सही प्रयोग" ही उचित होता है। हम जब बैंक अधिकारी थे तो हमारे द्वारा स्वीकृत एक ऋण का प्रकरण अदालत में चला गया और हमें गवाह के तौर पर पेश किया गया। ऋणी के वकील ने जब हमसे पूछा कि 'क्या आपने इसे ऋण दिया था?' तो हमारा जवाब था कि 'ऋण के लिए इसने आवेदन दिया था जिसे हमने स्वीकृत किया था।' वकील के प्रश्न के उत्तर में यदि हमने सिर्फ "हाँ" कहा होता तो वकील उसका अर्थ यही निकालता कि बैंक ने ही ऋण दिया था, ऋणी ने ऋण माँगा नहीं था। कानूनी मामलों में "शब्दों का सही प्रयोग" बहुत जरूरी होता है अन्यथा कभी भी अर्थ का अनर्थ निकाला जा सकता है।
अब जरा अंग्रेजी के इस वाक्य पर गौर फरमाएँ:
The proposal was seconded by the second person just within 30 seconds.
उपरोक्त वाक्य में "सेकंड" शब्द का प्रयोग तीन बार हुआ है और तीनों ही बार उसका अर्थ अलग है, याने कि अंग्रेजी का यमक अलंकार!
शब्द चाहे किसी भी भाषा के हों, एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं जिनका गलत प्रकार से प्रयोग होने पर जहाँ अर्थ का अनर्थ का अनर्थ होने की सम्भावना होती है वहीं उन अर्थों का सही प्रयोग होने पर भाषा का रूप निखर आता है। हिन्दी भाषा तो शब्दों तथा उनके अनेक अर्थों के मामले में अत्यन्त सम्पन्न है। विश्वास न हो तो "अमरकोष" उठा कर देख लीजिए, आपको एक ही शब्द कें अनेक अर्थ तथा उसके अनेक विकल्प मिल जाएँगे। उदाहरण के लिए अमरकोष के अनुसार "हरि" शब्द के निम्न अर्थ होते हैं:
यमराज, पवन, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, विष्णु, सिंह, किरण, घोड़ा, तोता, सांप, वानर और मेढक
और अमरकोष में ही बताया गया है कि विश्वकोष में कहा गया है कि वायु, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, यम, उपेन्द्र (वामन), किरण, सिंह घोड़ा, मेढक, सर्प, शुक्र और लोकान्तर को 'हरि' कहते हैं।
एक दोहा याद आ रहा है जिसमें हरि शब्द के तीन अर्थ हैं:
हरि हरसे हरि देखकर, हरि बैठे हरि पास।
या हरि हरि से जा मिले, वा हरि भये उदास॥
(अज्ञात)
पूरे दोहे का अर्थ हैः
मेढक (हरि) को देखकर सर्प (हरि) हर्षित हो गया (क्योंकि उसे अपना भोजन दिख गया था)। वह मेढक (हरि) समुद्र (हरि) के पास बैठा था। (सर्प को अपने पास आते देखकर) मेढक (हरि) समुद्र (हरि) में कूद गया। (मेढक के समुद्र में कूद जाने से या भोजन न मिल पाने के कारण) सर्प (हरि) उदास हो गया।
उपरोक्त दोहा हिन्दी में यमक अलंकार का एक अनुपम उदाहरण है।
अब थोड़ा जान लें कि यह यमक अलंकार क्या है? जब किसी शब्द का प्रयोग एक से अधिक बार होता है और हर बार उसका अर्थ अलग होता है तो उसे यमक अलंकार कहते हैं, जैसे किः
कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।
ये खाए बौरात हैं वे पाए बौराय॥
भूषण कवि ने की निम्न रचना में तो हर पंक्ति में यमक अलंकार का प्रयोग किया गया हैः
ऊँचे घोर मंदर के अन्दर रहन वारी,
ऊँचे घोर मंदर के अन्दर रहाती हैं।
कंद मूल भोग करें कंद मूल भोग करें
तीन बेर खातीं, ते वे तीन बेर खाती हैं।
भूषन शिथिल अंग भूषन शिथिल अंग,
बिजन डुलातीं ते वै बिजन डुलाती हैं।
‘भूषन’ भनत सिवराज बीर तेरे त्रास,
नगन जड़ातीं ते वे नगन जड़ाती हैं॥
यमक अलंकार के विपरीत, जब किसी शब्द का सिर्फ एक बार प्रयोग किया जाता है किन्तु उसके एक से अधिक अर्थ निकालते हैं तो "श्लेष" अलंकार होता है, उदाहरण के लिएः
पानी गए ना ऊबरे मोती मानुष चून।
तो ऐसी समृद्ध भाषा है हमारी मातृभाषा हिन्दी! इस पर हम जितना गर्व करें कम है!
चलते-चलते
डॉ. सरोजिनी प्रीतम की एक हँसिकाओं में यमक और श्लेष अलंकार के उदाहरणः
यमकः
तुम्हारी नौकरी के लिए
कह रखा था
सालों से सालों से!
श्लेषः
क्रुद्ध बॉस से
बोली घिघिया कर
माफ कर दीजिये सर
सुबह लेट आई थी
कम्पन्सेट कर जाऊँगी
बुरा न माने गर
शाम को 'लेट' जाऊँगी।
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इस पोस्ट को मूल रूप में यहाँ देखा जा सकता है
लेखक -- जी के अवधिया
‘सही शब्दों का प्रयोग’ या ‘शब्दों का सही प्रयोग’ इस पोस्ट का शीर्षक है जिसके कारण इस पोस्ट को पढ़ा किन्तु ऐसा नहीं लगा कि पोस्ट के लेखक की ब्लॉग में जो धाक मानी जाती है उसके आसपास भी इस पोस्ट की सामग्री है।
इधर ब्लॉग संसार में एक चलन देखने में आ रहा है कि हिन्दी भाषा को आधार बनाकर उसके व्याकरण, उच्चारण, प्रयोग, शब्द के प्रयोग आदि को लेकर पोस्ट बराबर लिखी जा रही है। कोई-कोई पोस्ट वास्तव में ज्ञान का भंडार समाहित किये होती है और कुछ पोस्ट केवल खानापूर्ति करती सी दिखती हैं।
इस पोस्ट के शीर्षक को देखकर लगा कि शायद कुछ अच्छी सी सामग्री इसमें हो जो हिन्दी के शाब्दिक ज्ञान को और बढ़ा दे किन्तु वही ढाक के तीन पात। लेखक ने पहले इस बात को समझाने की कोशिश की कि शब्दों के गलत प्रयोग से कैसे अर्थ का अनर्थ हो जाता है और फिर स्वयं ही शब्दों के प्रयोग-जाल में फंसते से दिखे।
साहित्य और सामान्य बोल-चाल की भाषा के साथ कानूनी भाषा के आधार पर शब्दों के सही प्रयोग अथवा सही शब्दों के प्रयोग में अन्तर को इस पोस्ट के द्वारा भी लेखक सही रूप में नहीं समझा सके। लेखक का मानना है कि साहित्य और सामान्य बोल-चाल की भाषा में ‘सही शब्दों के प्रयोग’ को उचित माना जाता है और कानूनी दांव-पेंचों और अदालती मामलों में ‘शब्दों के सही प्रयोग’ को उचित माना जाता है। इस तरह का विश्लेषण ही भाषा के प्रति भ्रम को बढ़ाता है।
उदाहरण के लिए एक वाक्य को देखें--‘एक फूल की माला देना।’
इसका क्या अर्थ निकाला जाये? ऐसी माला जिसमें एक फूल हो। इसको शुद्ध रूप में कुछ इस तरह से कहा जा सकता है--
‘फूल की एक माला देना।’ अर्थात् माला चाहिए है वो भी एक और फूलों की। यहां सामान्य बोल-चाल है और ‘सही शब्दों के प्रयोग’ को न करके ‘शब्दों के सही प्रयोग’ का होना यहां दिखता है।
इसी तरह एक बात और खटकी वो यह कि शब्दों के सही प्रयोग और सही शब्दों के प्रयोग को बताते-बताते लेखक अलंकार की ओर मुड़ जाता है। यह व्यतिक्रम इस कारण से भी खटकता है कि अलंकारों को केवल नाम से परिचित नहीं करवाया जा सकता जब तक कि उसके साथ में सार्थक से उदाहरण न हों। यमक और श्लेष में इतनी बारीक सी रेखा है कि उसको आसानी से पहचानना तभी संभव है जबकि आप हिन्दी के प्रति श्रद्धाभाव भरा प्रेम रखते हों। अन्यथा की स्थिति में कई बार भ्रम की स्थिति बनी रहती है।
इसी भ्रम का शिकार शायद लेखक महोदय भी हो गये हैं क्योंकि अपनी पोस्ट के अन्त में उन्होंने हास्य उत्पन्न करने के लिए जो दो उदाहरण यमक और श्लेष के नाम पर दिये हैं उनमें से श्लेष वाला उदाहरण भ्रम की स्थिति को आसानी से पैदा कर देता है।
श्लेष का जगजाहिर उदाहरण भी उन्होंने दिया है पर अधूरा। पूरा उदाहरण कुछ इस तरह से है---
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गये न उबरे, मोती मानूस चून।।
यहां स्पष्ट है कि शब्द ‘पानी’ एक ही है और उसके अपने आपमें कई अर्थ हैं। श्लेष का सीधा सा अर्थ है चिपका हुआ अर्थात् जिस शब्द में अर्थ एक दूसरे से आपस में चिपके हुए हों। उक्त उदाहरण में पानी को तीन रूप में देखा गया है किन्तु शब्द एक ही है।
इसको आधार बनाकर लेखक ने श्लेष का जो हास्यास्पद उदाहरण दिया है उसमें पहले ‘लेट’ शब्द आया है और बाद में आये शब्द ‘लेट’ के कारण उन्होंने इसे श्लेष स्वीकार लिया। यहां गौर करें पहले ‘लेट’ का अर्थ है देरी और दूसरे ‘लेट’ का अर्थ ???? इसके अलावा दोनों लेट का कोई अन्य अर्थ नहीं आ रहा है।
अब इसी संदर्भ को ध्यान में रखकर रहीमदास के उपरोक्त दोहे की ओर ध्यान दें। यहां पानी के अर्थ है चमक,सम्मान और जल। यदि श्लेष अलंकार को और अच्छी तरह से समझना हो तो उसके लिए इस उदाहरण को भी देखा जा सकता है--
मेरी भव बाधा हरो, गिरधर नागरि सोय।
जा तन की छाई परी, श्याम हरित दुति होय।।
इसमें श्याम के कई अर्थ हैं--कृष्ण, काला, दुःख।
इसी तरह हरित के कई अर्थ हैं--हरा, खुश, हरण।
शब्दों का सही प्रयोग और सही शब्दों का प्रयोग दोनों में बारीक सा अन्तर है और लेखक ने इसी अन्तर को समझाया होता तो शायद पोस्ट बेहतर बन पड़ी होती। शब्दों के प्रयोग पर प्रयोग करने के कारण ही वे स्वयं भ्रामक उदाहरण को उदाहरण के रूप में पेश कर बैठे।
शेष तो हिन्दी के नाम पर कुछ भी लिख देना हिन्दी नहीं है। वैसे स्वयं लेखक की स्वीकारोक्ति भी रही है कि ऐसी समृद्ध भाषा है हमारी मातृभाषा हिन्दी! इस पर जितना गर्व करें कम है!
तो आइये भाषा पर हिन्दी भाषा पर गर्व करें और इसके किसी भी तरह से गलत, भ्रामक प्रयोग को रोकने में एक दूसरे का सहयोग करें।
शेष पुनः अगले रविवार को एक और नई पोस्ट की व्याख्या-विश्लेषण सहित -- नमस्कार, धन्यवाद
आज रविवार की पोस्ट चर्चा के साथ हम फिर उपस्थित हुए हैं। आज की पोस्ट मूल रूप में पहले दी गई है और उसके बाद उस पोस्ट का विश्लेषण दिया गया है।
इस पोस्ट को चयन करने के पीछे इसका शीर्षक और फिर उसमें दी गई सामग्री को आधार बनाया गया।
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मूल पोस्ट
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मूल पोस्ट
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"सही शब्दों का प्रयोग" या "शब्दों का सही प्रयोग"?
Thursday, October 7, २०१०
जहाँ साहित्य तथा सामान्य बोल-चाल की भाषा में "सही शब्दों के प्रयोग" को उचित माना जाता है वहीं कानूनी दाँव-पेंचों वाले अदालती मामले में "शब्दों के सही प्रयोग" ही उचित होता है। हम जब बैंक अधिकारी थे तो हमारे द्वारा स्वीकृत एक ऋण का प्रकरण अदालत में चला गया और हमें गवाह के तौर पर पेश किया गया। ऋणी के वकील ने जब हमसे पूछा कि 'क्या आपने इसे ऋण दिया था?' तो हमारा जवाब था कि 'ऋण के लिए इसने आवेदन दिया था जिसे हमने स्वीकृत किया था।' वकील के प्रश्न के उत्तर में यदि हमने सिर्फ "हाँ" कहा होता तो वकील उसका अर्थ यही निकालता कि बैंक ने ही ऋण दिया था, ऋणी ने ऋण माँगा नहीं था। कानूनी मामलों में "शब्दों का सही प्रयोग" बहुत जरूरी होता है अन्यथा कभी भी अर्थ का अनर्थ निकाला जा सकता है।
अब जरा अंग्रेजी के इस वाक्य पर गौर फरमाएँ:
The proposal was seconded by the second person just within 30 seconds.
उपरोक्त वाक्य में "सेकंड" शब्द का प्रयोग तीन बार हुआ है और तीनों ही बार उसका अर्थ अलग है, याने कि अंग्रेजी का यमक अलंकार!
शब्द चाहे किसी भी भाषा के हों, एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं जिनका गलत प्रकार से प्रयोग होने पर जहाँ अर्थ का अनर्थ का अनर्थ होने की सम्भावना होती है वहीं उन अर्थों का सही प्रयोग होने पर भाषा का रूप निखर आता है। हिन्दी भाषा तो शब्दों तथा उनके अनेक अर्थों के मामले में अत्यन्त सम्पन्न है। विश्वास न हो तो "अमरकोष" उठा कर देख लीजिए, आपको एक ही शब्द कें अनेक अर्थ तथा उसके अनेक विकल्प मिल जाएँगे। उदाहरण के लिए अमरकोष के अनुसार "हरि" शब्द के निम्न अर्थ होते हैं:
यमराज, पवन, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, विष्णु, सिंह, किरण, घोड़ा, तोता, सांप, वानर और मेढक
और अमरकोष में ही बताया गया है कि विश्वकोष में कहा गया है कि वायु, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, यम, उपेन्द्र (वामन), किरण, सिंह घोड़ा, मेढक, सर्प, शुक्र और लोकान्तर को 'हरि' कहते हैं।
एक दोहा याद आ रहा है जिसमें हरि शब्द के तीन अर्थ हैं:
हरि हरसे हरि देखकर, हरि बैठे हरि पास।
या हरि हरि से जा मिले, वा हरि भये उदास॥
(अज्ञात)
पूरे दोहे का अर्थ हैः
मेढक (हरि) को देखकर सर्प (हरि) हर्षित हो गया (क्योंकि उसे अपना भोजन दिख गया था)। वह मेढक (हरि) समुद्र (हरि) के पास बैठा था। (सर्प को अपने पास आते देखकर) मेढक (हरि) समुद्र (हरि) में कूद गया। (मेढक के समुद्र में कूद जाने से या भोजन न मिल पाने के कारण) सर्प (हरि) उदास हो गया।
उपरोक्त दोहा हिन्दी में यमक अलंकार का एक अनुपम उदाहरण है।
अब थोड़ा जान लें कि यह यमक अलंकार क्या है? जब किसी शब्द का प्रयोग एक से अधिक बार होता है और हर बार उसका अर्थ अलग होता है तो उसे यमक अलंकार कहते हैं, जैसे किः
कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।
ये खाए बौरात हैं वे पाए बौराय॥
भूषण कवि ने की निम्न रचना में तो हर पंक्ति में यमक अलंकार का प्रयोग किया गया हैः
ऊँचे घोर मंदर के अन्दर रहन वारी,
ऊँचे घोर मंदर के अन्दर रहाती हैं।
कंद मूल भोग करें कंद मूल भोग करें
तीन बेर खातीं, ते वे तीन बेर खाती हैं।
भूषन शिथिल अंग भूषन शिथिल अंग,
बिजन डुलातीं ते वै बिजन डुलाती हैं।
‘भूषन’ भनत सिवराज बीर तेरे त्रास,
नगन जड़ातीं ते वे नगन जड़ाती हैं॥
यमक अलंकार के विपरीत, जब किसी शब्द का सिर्फ एक बार प्रयोग किया जाता है किन्तु उसके एक से अधिक अर्थ निकालते हैं तो "श्लेष" अलंकार होता है, उदाहरण के लिएः
पानी गए ना ऊबरे मोती मानुष चून।
तो ऐसी समृद्ध भाषा है हमारी मातृभाषा हिन्दी! इस पर हम जितना गर्व करें कम है!
चलते-चलते
डॉ. सरोजिनी प्रीतम की एक हँसिकाओं में यमक और श्लेष अलंकार के उदाहरणः
यमकः
तुम्हारी नौकरी के लिए
कह रखा था
सालों से सालों से!
श्लेषः
क्रुद्ध बॉस से
बोली घिघिया कर
माफ कर दीजिये सर
सुबह लेट आई थी
कम्पन्सेट कर जाऊँगी
बुरा न माने गर
शाम को 'लेट' जाऊँगी।
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इस पोस्ट को मूल रूप में यहाँ देखा जा सकता है
लेखक -- जी के अवधिया
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पोस्ट का विश्लेषण
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पोस्ट का विश्लेषण
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‘सही शब्दों का प्रयोग’ या ‘शब्दों का सही प्रयोग’ इस पोस्ट का शीर्षक है जिसके कारण इस पोस्ट को पढ़ा किन्तु ऐसा नहीं लगा कि पोस्ट के लेखक की ब्लॉग में जो धाक मानी जाती है उसके आसपास भी इस पोस्ट की सामग्री है।
इधर ब्लॉग संसार में एक चलन देखने में आ रहा है कि हिन्दी भाषा को आधार बनाकर उसके व्याकरण, उच्चारण, प्रयोग, शब्द के प्रयोग आदि को लेकर पोस्ट बराबर लिखी जा रही है। कोई-कोई पोस्ट वास्तव में ज्ञान का भंडार समाहित किये होती है और कुछ पोस्ट केवल खानापूर्ति करती सी दिखती हैं।
इस पोस्ट के शीर्षक को देखकर लगा कि शायद कुछ अच्छी सी सामग्री इसमें हो जो हिन्दी के शाब्दिक ज्ञान को और बढ़ा दे किन्तु वही ढाक के तीन पात। लेखक ने पहले इस बात को समझाने की कोशिश की कि शब्दों के गलत प्रयोग से कैसे अर्थ का अनर्थ हो जाता है और फिर स्वयं ही शब्दों के प्रयोग-जाल में फंसते से दिखे।
साहित्य और सामान्य बोल-चाल की भाषा के साथ कानूनी भाषा के आधार पर शब्दों के सही प्रयोग अथवा सही शब्दों के प्रयोग में अन्तर को इस पोस्ट के द्वारा भी लेखक सही रूप में नहीं समझा सके। लेखक का मानना है कि साहित्य और सामान्य बोल-चाल की भाषा में ‘सही शब्दों के प्रयोग’ को उचित माना जाता है और कानूनी दांव-पेंचों और अदालती मामलों में ‘शब्दों के सही प्रयोग’ को उचित माना जाता है। इस तरह का विश्लेषण ही भाषा के प्रति भ्रम को बढ़ाता है।
उदाहरण के लिए एक वाक्य को देखें--‘एक फूल की माला देना।’
इसका क्या अर्थ निकाला जाये? ऐसी माला जिसमें एक फूल हो। इसको शुद्ध रूप में कुछ इस तरह से कहा जा सकता है--
‘फूल की एक माला देना।’ अर्थात् माला चाहिए है वो भी एक और फूलों की। यहां सामान्य बोल-चाल है और ‘सही शब्दों के प्रयोग’ को न करके ‘शब्दों के सही प्रयोग’ का होना यहां दिखता है।
इसी तरह एक बात और खटकी वो यह कि शब्दों के सही प्रयोग और सही शब्दों के प्रयोग को बताते-बताते लेखक अलंकार की ओर मुड़ जाता है। यह व्यतिक्रम इस कारण से भी खटकता है कि अलंकारों को केवल नाम से परिचित नहीं करवाया जा सकता जब तक कि उसके साथ में सार्थक से उदाहरण न हों। यमक और श्लेष में इतनी बारीक सी रेखा है कि उसको आसानी से पहचानना तभी संभव है जबकि आप हिन्दी के प्रति श्रद्धाभाव भरा प्रेम रखते हों। अन्यथा की स्थिति में कई बार भ्रम की स्थिति बनी रहती है।
इसी भ्रम का शिकार शायद लेखक महोदय भी हो गये हैं क्योंकि अपनी पोस्ट के अन्त में उन्होंने हास्य उत्पन्न करने के लिए जो दो उदाहरण यमक और श्लेष के नाम पर दिये हैं उनमें से श्लेष वाला उदाहरण भ्रम की स्थिति को आसानी से पैदा कर देता है।
श्लेष का जगजाहिर उदाहरण भी उन्होंने दिया है पर अधूरा। पूरा उदाहरण कुछ इस तरह से है---
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गये न उबरे, मोती मानूस चून।।
यहां स्पष्ट है कि शब्द ‘पानी’ एक ही है और उसके अपने आपमें कई अर्थ हैं। श्लेष का सीधा सा अर्थ है चिपका हुआ अर्थात् जिस शब्द में अर्थ एक दूसरे से आपस में चिपके हुए हों। उक्त उदाहरण में पानी को तीन रूप में देखा गया है किन्तु शब्द एक ही है।
इसको आधार बनाकर लेखक ने श्लेष का जो हास्यास्पद उदाहरण दिया है उसमें पहले ‘लेट’ शब्द आया है और बाद में आये शब्द ‘लेट’ के कारण उन्होंने इसे श्लेष स्वीकार लिया। यहां गौर करें पहले ‘लेट’ का अर्थ है देरी और दूसरे ‘लेट’ का अर्थ ???? इसके अलावा दोनों लेट का कोई अन्य अर्थ नहीं आ रहा है।
अब इसी संदर्भ को ध्यान में रखकर रहीमदास के उपरोक्त दोहे की ओर ध्यान दें। यहां पानी के अर्थ है चमक,सम्मान और जल। यदि श्लेष अलंकार को और अच्छी तरह से समझना हो तो उसके लिए इस उदाहरण को भी देखा जा सकता है--
मेरी भव बाधा हरो, गिरधर नागरि सोय।
जा तन की छाई परी, श्याम हरित दुति होय।।
इसमें श्याम के कई अर्थ हैं--कृष्ण, काला, दुःख।
इसी तरह हरित के कई अर्थ हैं--हरा, खुश, हरण।
शब्दों का सही प्रयोग और सही शब्दों का प्रयोग दोनों में बारीक सा अन्तर है और लेखक ने इसी अन्तर को समझाया होता तो शायद पोस्ट बेहतर बन पड़ी होती। शब्दों के प्रयोग पर प्रयोग करने के कारण ही वे स्वयं भ्रामक उदाहरण को उदाहरण के रूप में पेश कर बैठे।
शेष तो हिन्दी के नाम पर कुछ भी लिख देना हिन्दी नहीं है। वैसे स्वयं लेखक की स्वीकारोक्ति भी रही है कि ऐसी समृद्ध भाषा है हमारी मातृभाषा हिन्दी! इस पर जितना गर्व करें कम है!
तो आइये भाषा पर हिन्दी भाषा पर गर्व करें और इसके किसी भी तरह से गलत, भ्रामक प्रयोग को रोकने में एक दूसरे का सहयोग करें।
शेष पुनः अगले रविवार को एक और नई पोस्ट की व्याख्या-विश्लेषण सहित -- नमस्कार, धन्यवाद
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