रविवार, 26 सितंबर 2010

पोस्ट का विश्लेषण -- शब्दों का विलोपन चिंता का विषय है

आज एक पोस्ट विश्लेषण के साथ आपके सामने पेश है। पिछले एक सप्ताह में बहुत सी पोस्ट देखीं कुछ पसंद आईं और कुछ पसंद नहीं आईं। इस समय देश में दो-तीन मामले छाये हैं और ब्लॉग संसार भी इससे अछूता नहीं है। कॉमनवेल्थ और अयोध्या ऐसे ही मुद्दे हैं। इन पर कई पोस्ट देखीं किन्तु ऐसा कुछ नहीं दिखा जिसका विश्लेषण किया जा सके। काफी मेहनत के बाद कुछ पोस्ट को छांटा गया और फिर उनमें से एक को चुन कर उसका विश्लेषण आपके सामने रखा है।

कृपया इसे बिना किसी पूर्वाग्रह के पढ़ा जाये। इसके पीछे हमारा कोई विशेष मन्तव्य नहीं रहा, बस इस पोस्ट को पढ़ने के बाद लगा कि इसका विश्लेषण इस प्रकार से किया जाये, वही आपके सामने है।

पहले मूल पोस्ट सम्बन्धित रचनाकार का आभार व्यक्त करते हुए और इसके बाद हमारे द्वारा किया इस पोस्ट का विश्लेषण।

पढिये और अपने विचार-सुझाव भी दीजिएगा।

======================================
ब्लॉग का नाम -- अभिव्यक्ति
रचनाकार -- हिमानी


शब्दों से हमारा रिश्ता बहुत ख़ास होता है . लेकिन इस रिश्ते का महत्व तब तक एक रहस्य बना रहता है जब तक की कोई ऐसी परिस्थिति न आन पड़े कि हमारे पास भावनाए हो और शब्द न मिले. वो एक अनमना सा पल जब अचानक शब्द गले तक पहुँच कर फिसल जाये जुबान तक आ ही न पाए. कितनी तकलीफ से भर जाता है मन , मन की बात कहने को जुबान व्याकुल सी हो जाती है लेकिन दिमाग है कि एक भूलभुलैया में खो जाता है . शब्दों की भुलभुलिया . जहाँ अपनी भावनाओ को सही शब्द दे पाना एक मुश्किल से भरा फैसला होता है.


ये बातें मैं किसी प्रेम प्रसंग या किसे कहानी के वश में होकर नही लिख रही हूँ, बल्कि पिछले कुछ दिनों से एक अखबार के दफ्तर में काम करते हुए, हुआ एक अनुभव है , जहाँ शब्दों के लिए शब्दों के ही बीच में हर रोज एक जंग सी होती है. सभी के सुझाये गए शब्दों की अपनी एक वजह है. उनकी बोली, उनका परिवेश,उनकी पढाई .....और फिर हर शब्द के साथ काम करने वाली उनकी निजी सोच. मगर उस एक वक़्त जरुरत होती है हर तरह से फिट एक अदद शब्द की. शब्द मिलने के बाद उसकी लिखावट पर चर्चा. कहीं छोटा उ कही बड़ी ई. हालाँकि हर अखबार की अपनी एक स्टाइल शीट होती है लेकिन फिर भी हिंदी के अख़बारों में भाषा गत शुद्धता को लेकर बहुत सारा विरोधाभास है ....पढाई के दिनों में हमें अच्छी अंग्रेजी के लिए द हिन्दू पढने को कहा जाता था लेकिन वही हिंदी को लेकर हम अपनी अशुधता को दूर कर सके उसके लिए किसी एक भी अखबार का नाम ध्यान नही आता . ख़बरों की अपनी अलग पहचान के साथ अखबार या चैनल की पहचान उसकी भाषागत शैली के साथ भी जुडी है.मीडिया में हर बढ़ते दिन के साथ नए नए प्रयोग हो रहे है अलग तरह के कोलुम्न्स ले आउट लेकिन भाषा को लेकर सिर्फ एक निजी सोच और समझ है वास्तव में सही क्या है इसका फैसला एक बड़ी बहस का बाद भी न निकले शायद. कुछ आगे बढ़कर कहीं कहीं तो हिंदी लिखने के साथ भी अजीब गरीब आसान नुस्खे अपनाये जा रहे है. एक तर्क ये होता है की वही लिखना है जो पाठक को समझ में आये. लेकिन समझाने का ये कौन सा तरीका है की शब्द की बनावट ही अपने हिसाब से तय कर ली जाये. और फिर आम भाषा बोलचाल की भाषा और अखबार और चैनल की भाषा में कुछ तो फर्क होता है न . मुझे लगता है कि यंग इंडिया का मीडिया बनने से पहले शायद इंडिया का मीडिया बनना ज्यादा जरुरी है क्योंकि यंग इंडिया भी इंडिया को खोना नही चाहता वो अपने जुगाड़ करना अच्छे से जानता है उसके लिए इंडिया की भाषा, संस्कृति को idiotik बनाना सही नही होगा.
शब्द भी बाकी चींजों कि तरह हमारी अनमोल धरोहर है उस एहसास से ही मन मायूस हो जाता है कि कहीं कोई शब्द खो गया है
प्रोयोगों के इस दौर में झांक के देखेंगे तो एक गहरी खाई है जिसमे बहुत सारे शब्द गिरा दिए गए है उन्हें वापिस लाने की कोशिश करनी चाहिए .............ये कोशिश कामयाब होना भी निहायत जरुरी है ताकि शब्दों के आंचल में हमेशा हमारी भावनाओ की बयाँ करने के लिए जगह रहे।
-------------------------------------------------
इस पोस्ट को मूल रूप में इस लिंक पर क्लिक करके देखा जा सकता है.


======================================
ये रहा उक्त पोस्ट का विश्लेषण
======================================

ताकि छोटा ना हो शब्दों का आंचल, इस शीर्षक से एक अजब सी अनुभूति हुई और इस पोस्ट को पढ़ने की प्रेरणा दी अथवा मजबूरी पैदा की, यह अलग विषय है। पोस्ट को देखा और प्रारम्भिक पंक्तियों से लगा कि लेखिका कुछ स्पष्ट करना चाहती है, जिसको तर्कों और तथ्यों के माध्यम से देखा जायेगा किन्तु आगे ऐसा नहीं हुआ।

अंग्रेजी के द हिन्दू से निकल कर हिन्दी में अखबारों की कमी (ऐसे समाचार-पत्र जिन्हें भाषाई शुद्धता के लिए जाना जाये) देखती लेखिका शायद उस जमाने के जनसत्ता से अथवा साहित्यिक पत्रिका धर्मयुग से परिचित नहीं रही हैं। पत्रिका की बात न करें तो जनसत्ता को हिन्दी भाषाई शुद्धता और उत्कृष्ट जानकारी के लिए आज भी जाना जाता है।

पोस्ट में समाचार-पत्र कार्यालय में काम करने के अनुभव का जिक्र हुआ तो लगा कि लेखिका हिन्दी भाषाई शुद्धता को स्पष्ट करते हुए कोई विशेष खुलासा करेगीं पर वह भी ‘इंडिया’ की भाषा के फेर में पड़ गईं। इंडिया को यंगिस्तान बना देना यंग इंडिया (अंडरगारमेंट वाला नहीं बल्कि नौजवानों वाला) की भावी योजना हो सकती है और इसी सोच में वह भाषा संस्कृति की परवाह किये वगैर उसे इडियोटिक (Idiotik) (लेखिका के शब्दों में) बना रहा है।

यदि शब्दों की गुम होती स्थिति को, मीडिया की भाषाई अशुद्धता को भारत की भाषा के रूप में देखा जाता तो गलतियां दिखतीं पर यहां तो ऐसा नहीं हुआ। इंडिया के यंग और यंग इंडिया के मीडिया की चर्चा होती रही। ऐसे में शब्दों की, भाषा की अशुद्धियां कहां से दिखतीं?

यह बात अवश्य है कि लेखिका द्वारा एक सार्थक प्रयास किया गया और एक ऐसे विषय को उठाया गया जिसकी ओर हमारा ध्यान बिलकुल भी नहीं जा रहा है। मीडिया वह चाहे प्रिंट हो अथवा इलेक्ट्रानिक, भाषाई-शाब्दिक अशुद्धता व्यापक रूप से फैला रहे हैं। लेखिका द्वारा अपने कार्यानुभव के दौरान देखी गई भाषाई-शाब्दिक अशुद्धियों के उदाहरण दिये गये होते तो और बेहतर होता।

वैसे इन दिनो तो क्या हिन्दी समाचार-पत्र और क्या अंग्रेजी समाचार-पत्र सभी भाषाई-शाब्दिक अशुद्धता से भरे पड़े हैं। हिन्दी समाचार-पत्रों की बात हो रही है तो उनके द्वारा हो रही कुछ त्रुटियों के उदाहरण--
1-एक लाश तालाब में तैरती पाई गई -- यहां तैरना एक क्रिया है जो किसी भी जीवित के द्वारा ही हो सकती है। देखा जाये तो लाश उतरा तो सकती है किन्तु तैर नहीं सकती है।
2-मजिस्ट्रेट द्वारा भगाई गई लड़की के बयान दर्ज -- यहां लग रहा है कि लड़की मजिस्ट्रेट द्वारा भगाई गई हो।

शब्दों के विलोपन की समस्या का उठाया जाना लेखिका का साधुवादपूर्ण कदम कहा जा सकता है। हम अपने आसपास से नित्य ही कुछ शब्दों को गायब होता देख रहे हैं। राष्ट्रकुल खेल अथवा राष्ट्रमंडल खेल गायब है और बच रहा है तो कॉमनवेल्थ गेम्समोटरसाइकिल किसी को याद नहीं बाइक सभी की पसंद हो गई है। कैलकुलेटर को कैल्सी और लैपटॉप को लैपी यही यंग इंडिया पुकारता दिखता है।

इस तरह के दौर में लेखिका की चिन्ता जायज है कि शब्द भी बाकी चींजों कि तरह हमारी अनमोल धरोहर है उस एहसास से ही मन मायूस हो जाता है कि कहीं कोई शब्द खो गया है
प्रोयोगों के इस दौर में झांक के देखेंगे तो एक गहरी खाई है जिसमे बहुत सारे शब्द गिरा दिए गए है उन्हें वापिस लाने की कोशिश करनी चाहिए .............ये कोशिश कामयाब होना भी निहायत जरुरी है ताकि शब्दों के आंचल में हमेशा हमारी भावनाओ की बयाँ करने के लिए जगह रहे।

पुनः अगले रविवार को किसी एक पोस्ट के साथ मिलने की प्रत्याशा सहित


आगे पढ़ें...

सोमवार, 20 सितंबर 2010

प्रत्येक रविवार को किसी एक पोस्ट का विश्लेषण यानि कि पोस्टमार्टम



आज इस पोस्ट के माध्यम से सिर्फ जानकारी बांटी जा रही है। इस ब्लॉग को हमने अपने जन्मदिन १९ सितम्बर २०१० को शुरू किया है। (हालाँकि समय के कारण ये पोस्ट २० सितम्बर को समाप्त हो रही है)

सोचा ये था कि १९ तारीख पूरी तरह गुजर जाने के बाद ही इसमें जानकारी पोस्ट करेंगे। ये ब्लॉग पूरे एक सप्ताह में हमारे द्वारा पढ़ी जाने वाली विभिन्न पोस्ट में से किसी भी एक पोस्ट का विश्लेषण प्रस्तुत करेगा।

चित्र गूगल छवियों से साभार

यहाँ ये बताना आवशयक है (कानूनी सूचना के जैसा) कि इस ब्लॉग पर किसी की भी पोस्ट हो सकती है। किसी एक पोस्ट का ही विश्लेषण होगा। ब्लोगर छोटा, बड़ा, नया, पुराना कोई भी हो सकता है। किसी के साथ पूर्वाग्रह न रख कर पोस्ट का विश्लेषण होगा और आपसे भी अनुरोध है कि यहाँ पर की जाने वाली पोस्ट का विश्लेषण आप भी बिना किसी पूर्वाग्रह के पढेंगे।

ब्लॉग वार्ता, ब्लॉग चर्चा आदि जैसे ब्लॉग होने के बाद भी इसको बनाने का मकसद बस इतना है कि इसके द्वारा किसी ब्लॉग का नहीं सिर्फ किसी एक ही पोस्ट का विश्लेषण हो। इसके पीछे का कारण एक और है कि कई बार टिप्पणी के द्वारा सारी बात स्पष्ट नहीं हो पाती है तो उसको इस ब्लॉग में विश्लेषित की गई पोस्ट में किया जा सकता है।

विशेष ध्यान देने वाली बात ये है कि इस ब्लॉग पर पोस्ट का विश्लेषण सप्ताह में सिर्फ एक दिन रविवार के रविवार ही किया जाएगा। समय संभव होगा तो रात को ९ बजे से १० बजे के बीच।

आइये हमारे जन्मदिन पर शुरू एक और ब्लॉग का आप समर्थन करिए और पोस्टमार्टम -- पोस्ट विश्लेषण का मजा लीजिये।


आगे पढ़ें...