रविवार, 10 अक्तूबर 2010

शब्दों का प्रयोग सही रूप में हो, अलंकार ही सही

नमस्कार,
आज रविवार की पोस्ट चर्चा के साथ हम फिर उपस्थित हुए हैं। आज की पोस्ट मूल रूप में पहले दी गई है और उसके बाद उस पोस्ट का विश्लेषण दिया गया है।

इस पोस्ट को चयन करने के पीछे इसका शीर्षक और फिर उसमें दी गई सामग्री को आधार बनाया गया।
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मूल पोस्ट
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"सही शब्दों का प्रयोग" या "शब्दों का सही प्रयोग"?

Thursday, October 7, २०१०

विचित्र होते हैं ये शब्द भी। प्रयोग के अनुसार सामने वाले को मोह सकते हैं तो कभी अर्थ का अनर्थ बनाकर भड़का भी सकते हैं। लखनवी शैली में यदि युवक युवती से "खादिम हूँ आपका" कहता है तो युवती प्रसन्न होती है किन्तु भूल से भी यदि "खादिम" के स्थान पर "खाविंद" शब्द का प्रयोग हो जाए अर्थात् युवक "खाविंद हूँ आपका" कह दे तो आप स्वयं ही सोच सकते हैं कि युवती पर क्या प्रतिक्रया होगी। लखनवी शैली की बात चली है तो आपको बता दें कि एक नवाब साहब ने निर्धन कवि को अपने महल में निमंत्रित किया था। नवाब साहब के द्वारा बारम्बार अपने शानदार महल को "गरीबखाना" कहने पर निर्धन कवि सोचने लगा कि जब ये अपने इतने बड़े महल को "गरीबखाना" कह रहे हैं तो मैं अपनी झोपड़ी को भला क्या कहूँ? अन्त में बेचारे ने नवाब साहब से कहा, "आपके यहाँ आकर बहुत प्रसन्नता हुई, आप भी कभी मेरे 'पायखाना' में आने का कष्ट कीजिएगा।"

जहाँ साहित्य तथा सामान्य बोल-चाल की भाषा में "सही शब्दों के प्रयोग" को उचित माना जाता है वहीं कानूनी दाँव-पेंचों वाले अदालती मामले में "शब्दों के सही प्रयोग" ही उचित होता है। हम जब बैंक अधिकारी थे तो हमारे द्वारा स्वीकृत एक ऋण का प्रकरण अदालत में चला गया और हमें गवाह के तौर पर पेश किया गया। ऋणी के वकील ने जब हमसे पूछा कि 'क्या आपने इसे ऋण दिया था?' तो हमारा जवाब था कि 'ऋण के लिए इसने आवेदन दिया था जिसे हमने स्वीकृत किया था।' वकील के प्रश्न के उत्तर में यदि हमने सिर्फ "हाँ" कहा होता तो वकील उसका अर्थ यही निकालता कि बैंक ने ही ऋण दिया था, ऋणी ने ऋण माँगा नहीं था। कानूनी मामलों में "शब्दों का सही प्रयोग" बहुत जरूरी होता है अन्यथा कभी भी अर्थ का अनर्थ निकाला जा सकता है।

अब जरा अंग्रेजी के इस वाक्य पर गौर फरमाएँ:

The proposal was seconded by the second person just within 30 seconds.

उपरोक्त वाक्य में "सेकंड" शब्द का प्रयोग तीन बार हुआ है और तीनों ही बार उसका अर्थ अलग है, याने कि अंग्रेजी का यमक अलंकार!

शब्द चाहे किसी भी भाषा के हों, एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं जिनका गलत प्रकार से प्रयोग होने पर जहाँ अर्थ का अनर्थ का अनर्थ होने की सम्भावना होती है वहीं उन अर्थों का सही प्रयोग होने पर भाषा का रूप निखर आता है। हिन्दी भाषा तो शब्दों तथा उनके अनेक अर्थों के मामले में अत्यन्त सम्पन्न है। विश्वास न हो तो "अमरकोष" उठा कर देख लीजिए, आपको एक ही शब्द कें अनेक अर्थ तथा उसके अनेक विकल्प मिल जाएँगे। उदाहरण के लिए अमरकोष के अनुसार "हरि" शब्द के निम्न अर्थ होते हैं:

यमराज, पवन, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, विष्णु, सिंह, किरण, घोड़ा, तोता, सांप, वानर और मेढक

और अमरकोष में ही बताया गया है कि विश्वकोष में कहा गया है कि वायु, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, यम, उपेन्द्र (वामन), किरण, सिंह घोड़ा, मेढक, सर्प, शुक्र और लोकान्तर को 'हरि' कहते हैं।

एक दोहा याद आ रहा है जिसमें हरि शब्द के तीन अर्थ हैं:

हरि हरसे हरि देखकर, हरि बैठे हरि पास।
या हरि हरि से जा मिले, वा हरि भये उदास॥

(अज्ञात)

पूरे दोहे का अर्थ हैः

मेढक (हरि) को देखकर सर्प (हरि) हर्षित हो गया (क्योंकि उसे अपना भोजन दिख गया था)। वह मेढक (हरि) समुद्र (हरि) के पास बैठा था। (सर्प को अपने पास आते देखकर) मेढक (हरि) समुद्र (हरि) में कूद गया। (मेढक के समुद्र में कूद जाने से या भोजन न मिल पाने के कारण) सर्प (हरि) उदास हो गया।

उपरोक्त दोहा हिन्दी में यमक अलंकार का एक अनुपम उदाहरण है।

अब थोड़ा जान लें कि यह यमक अलंकार क्या है? जब किसी शब्द का प्रयोग एक से अधिक बार होता है और हर बार उसका अर्थ अलग होता है तो उसे यमक अलंकार कहते हैं, जैसे किः

कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।
ये खाए बौरात हैं वे पाए बौराय॥


भूषण कवि ने की निम्न रचना में तो हर पंक्ति में यमक अलंकार का प्रयोग किया गया हैः

ऊँचे घोर मंदर के अन्दर रहन वारी,
ऊँचे घोर मंदर के अन्दर रहाती हैं।
कंद मूल भोग करें कंद मूल भोग करें
तीन बेर खातीं, ते वे तीन बेर खाती हैं।
भूषन शिथिल अंग भूषन शिथिल अंग,
बिजन डुलातीं ते वै बिजन डुलाती हैं।
‘भूषन’ भनत सिवराज बीर तेरे त्रास,
नगन जड़ातीं ते वे नगन जड़ाती हैं॥


यमक अलंकार के विपरीत, जब किसी शब्द का सिर्फ एक बार प्रयोग किया जाता है किन्तु उसके एक से अधिक अर्थ निकालते हैं तो "श्लेष" अलंकार होता है, उदाहरण के लिएः

पानी गए ना ऊबरे मोती मानुष चून।

तो ऐसी समृद्ध भाषा है हमारी मातृभाषा हिन्दी! इस पर हम जितना गर्व करें कम है!

चलते-चलते

डॉ. सरोजिनी प्रीतम की एक हँसिकाओं में यमक और श्लेष अलंकार के उदाहरणः

यमकः

तुम्हारी नौकरी के लिए
कह रखा था
सालों से सालों से!

श्लेषः

क्रुद्ध बॉस से
बोली घिघिया कर
माफ कर दीजिये सर
सुबह लेट आई थी
कम्पन्सेट कर जाऊँगी
बुरा न माने गर
शाम को 'लेट' जाऊँगी।


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इस पोस्ट को मूल रूप में यहाँ देखा जा सकता है
लेखक -- जी के अवधिया

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पोस्ट का विश्लेषण
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‘सही शब्दों का प्रयोग’ या ‘शब्दों का सही प्रयोग’ इस पोस्ट का शीर्षक है जिसके कारण इस पोस्ट को पढ़ा किन्तु ऐसा नहीं लगा कि पोस्ट के लेखक की ब्लॉग में जो धाक मानी जाती है उसके आसपास भी इस पोस्ट की सामग्री है।
इधर ब्लॉग संसार में एक चलन देखने में आ रहा है कि हिन्दी भाषा को आधार बनाकर उसके व्याकरण, उच्चारण, प्रयोग, शब्द के प्रयोग आदि को लेकर पोस्ट बराबर लिखी जा रही है। कोई-कोई पोस्ट वास्तव में ज्ञान का भंडार समाहित किये होती है और कुछ पोस्ट केवल खानापूर्ति करती सी दिखती हैं।

इस पोस्ट के शीर्षक को देखकर लगा कि शायद कुछ अच्छी सी सामग्री इसमें हो जो हिन्दी के शाब्दिक ज्ञान को और बढ़ा दे किन्तु वही ढाक के तीन पात। लेखक ने पहले इस बात को समझाने की कोशिश की कि शब्दों के गलत प्रयोग से कैसे अर्थ का अनर्थ हो जाता है और फिर स्वयं ही शब्दों के प्रयोग-जाल में फंसते से दिखे।

साहित्य और सामान्य बोल-चाल की भाषा के साथ कानूनी भाषा के आधार पर शब्दों के सही प्रयोग अथवा सही शब्दों के प्रयोग में अन्तर को इस पोस्ट के द्वारा भी लेखक सही रूप में नहीं समझा सके। लेखक का मानना है कि साहित्य और सामान्य बोल-चाल की भाषा में ‘सही शब्दों के प्रयोग’ को उचित माना जाता है और कानूनी दांव-पेंचों और अदालती मामलों में ‘शब्दों के सही प्रयोग’ को उचित माना जाता है। इस तरह का विश्लेषण ही भाषा के प्रति भ्रम को बढ़ाता है।

उदाहरण के लिए एक वाक्य को देखें--‘एक फूल की माला देना।’
इसका क्या अर्थ निकाला जाये? ऐसी माला जिसमें एक फूल हो। इसको शुद्ध रूप में कुछ इस तरह से कहा जा सकता है--
‘फूल की एक माला देना।’ अर्थात् माला चाहिए है वो भी एक और फूलों की। यहां सामान्य बोल-चाल है और ‘सही शब्दों के प्रयोग’ को न करके ‘शब्दों के सही प्रयोग’ का होना यहां दिखता है।

इसी तरह एक बात और खटकी वो यह कि शब्दों के सही प्रयोग और सही शब्दों के प्रयोग को बताते-बताते लेखक अलंकार की ओर मुड़ जाता है। यह व्यतिक्रम इस कारण से भी खटकता है कि अलंकारों को केवल नाम से परिचित नहीं करवाया जा सकता जब तक कि उसके साथ में सार्थक से उदाहरण न हों। यमक और श्लेष में इतनी बारीक सी रेखा है कि उसको आसानी से पहचानना तभी संभव है जबकि आप हिन्दी के प्रति श्रद्धाभाव भरा प्रेम रखते हों। अन्यथा की स्थिति में कई बार भ्रम की स्थिति बनी रहती है।

इसी भ्रम का शिकार शायद लेखक महोदय भी हो गये हैं क्योंकि अपनी पोस्ट के अन्त में उन्होंने हास्य उत्पन्न करने के लिए जो दो उदाहरण यमक और श्लेष के नाम पर दिये हैं उनमें से श्लेष वाला उदाहरण भ्रम की स्थिति को आसानी से पैदा कर देता है।

श्लेष का जगजाहिर उदाहरण भी उन्होंने दिया है पर अधूरा। पूरा उदाहरण कुछ इस तरह से है---
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गये न उबरे, मोती मानूस चून।।

यहां स्पष्ट है कि शब्द ‘पानी’ एक ही है और उसके अपने आपमें कई अर्थ हैं। श्लेष का सीधा सा अर्थ है चिपका हुआ अर्थात् जिस शब्द में अर्थ एक दूसरे से आपस में चिपके हुए हों। उक्त उदाहरण में पानी को तीन रूप में देखा गया है किन्तु शब्द एक ही है।

इसको आधार बनाकर लेखक ने श्लेष का जो हास्यास्पद उदाहरण दिया है उसमें पहले ‘लेट’ शब्द आया है और बाद में आये शब्द ‘लेट’ के कारण उन्होंने इसे श्लेष स्वीकार लिया। यहां गौर करें पहले ‘लेट’ का अर्थ है देरी और दूसरे ‘लेट’ का अर्थ ???? इसके अलावा दोनों लेट का कोई अन्य अर्थ नहीं आ रहा है।

अब इसी संदर्भ को ध्यान में रखकर रहीमदास के उपरोक्त दोहे की ओर ध्यान दें। यहां पानी के अर्थ है चमक,सम्मान और जल। यदि श्लेष अलंकार को और अच्छी तरह से समझना हो तो उसके लिए इस उदाहरण को भी देखा जा सकता है--
मेरी भव बाधा हरो, गिरधर नागरि सोय।
जा तन की छाई परी, श्याम हरित दुति होय।।

इसमें श्याम के कई अर्थ हैं--कृष्ण, काला, दुःख।
इसी तरह हरित के कई अर्थ हैं--हरा, खुश, हरण।

शब्दों का सही प्रयोग और सही शब्दों का प्रयोग दोनों में बारीक सा अन्तर है और लेखक ने इसी अन्तर को समझाया होता तो शायद पोस्ट बेहतर बन पड़ी होती। शब्दों के प्रयोग पर प्रयोग करने के कारण ही वे स्वयं भ्रामक उदाहरण को उदाहरण के रूप में पेश कर बैठे।

शेष तो हिन्दी के नाम पर कुछ भी लिख देना हिन्दी नहीं है। वैसे स्वयं लेखक की स्वीकारोक्ति भी रही है कि ऐसी समृद्ध भाषा है हमारी मातृभाषा हिन्दी! इस पर जितना गर्व करें कम है!

तो आइये भाषा पर हिन्दी भाषा पर गर्व करें और इसके किसी भी तरह से गलत, भ्रामक प्रयोग को रोकने में एक दूसरे का सहयोग करें।

शेष पुनः अगले रविवार को एक और नई पोस्ट की व्याख्या-विश्लेषण सहित -- नमस्कार, धन्यवाद


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रविवार, 3 अक्तूबर 2010

विज्ञापन के अलावा और दूसरी जगह सैनिकों का होता अपमान क्यों नहीं दीखता

September 27, 2010

कंपनी का नाम माइक्रोमेक्स मोबाइल का नाम क्यूब , विज्ञापन हटवाने में सहयोग करे




अपने सैनिक तो ये हैं नहीं लेकिन हम अपने सैनिको के प्रति कितने निर्मम हैं ये विज्ञापन इस बात का प्रतीक हैं । असंवेदनशीलता की हर सीमा को तोड़ता हैं ये विज्ञापन । वो सैनिक जो हमारी सुरक्षा मे पहरा देते हैं उनके प्रति इस प्रकार का रवाया रखना एक बेहद गिरी हुई सोच हैं ।

इस लिंक पर जा कर अपना आक्रोश व्यक्त करे और इस विज्ञापन को शीघ्र बंद करवाने की कोशिश मे अपना योगदान दे ।

मै ऐसे हर विज्ञापन की भर्त्सना करती हूँ जिस मे देश के गौरव को एक बफून बनाया गया हैं । आप के सहयोग की प्रतीक्षा हैं ।

इस पोस्ट को जितने लोगो को पढवा सके और उनसे ऊपर दिये लिंक पर मेल करवा सके तो अच्छा होगा

कंपनी का नाम माइक्रोमेक्स
मोबाइल का नाम क्यूब हैं


Please go on this link
to get the advertisement off air .
company name micromax
model Qube

इस पोस्ट को मूल रूप में इस लिंक के द्वारा देखा जा सकता है

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इस पोस्ट का विश्लेषण
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आज के रविवार की पोस्ट विश्लेषण में नारी ब्लॉग की पोस्ट को लिया गया है। इस पोस्ट में टी0वी0 पर दिखाये जा रहे एक विज्ञापन को आधार बनाया गया था। इस पोस्ट के द्वारा सभी से अपील की गई थी कि एक विशेष लिंक पर जाकर सम्बन्धित विज्ञापन के प्रति विरोध दर्ज करवायें। इस विरोध के पीछे का मूल विज्ञापन में दिखाये जा रहे चित्रण के द्वारा सैनिकों के अपमान का मुद्दा उठाया गया था।

किसी भी रूप में किसी बात का विरोध करना बहुत आसान होता है किन्तु यदि विरोध का आधार सही न हो तो विरोध करने की नीयत पर ही शंका हो जाती है। टी0 वी0 के रंगीन संसार में दिखाये जा रहे विज्ञापनों और अन्य दृश्य सामग्री में बहुत से आपत्तिजनक चित्रण दिखाये जाते हैं। इस बार की इस सम्बन्धित पोस्ट के द्वारा सैनिकों के अपमान की चर्चा की गई।

सर्वप्रथम तो पोस्ट के लेखक को साधुवाद कि उन्होंने सैनिकों के सम्मान-अपमान की चर्चा करना आवश्यक समझा। अब इसके दूसरे पहलू को देखें तो समझ में नहीं आता कि सैनिकों के मान-अपमान के लिए एक छोटा सा विज्ञापन ही आधार क्यों बनाया गया? इसके अलावा एक और सवाल मन में उभरता है कि आखिर इस विमर्श के लिए इसी विज्ञापन को ही आधार क्यों बनाया गया?

पोस्ट में जो विज्ञापन दिखाया गया है उसमें सैनिकों को लड़ते और एक सैनिक को मोबाइल का प्रयोग करते दिखाया गया है। इसी में उसके साथ का दूसरा सैनिक बार-बार उससे मोबाइल छीनने की कोशिश करता है, इसका सीधा सा अर्थ यह लगाया जा सकता है कि वह मोबाइल छीनकर उस सैनिक को लड़ने के लिए उकसाता है। देखा जाये तो यहां अपमान जैसी बात कहां से दिखती है? क्या सैनिक का एकमात्र कार्य लड़ना ही है यदि हां तो फिर कभी बाढ़ के लिए सैनिक शक्ति का प्रयोग, कभी गड्ढे से बच्चे को निकालने में सैनिकों को लगाया जाना, कभी छोटी-छोटी सी झड़प के बाद सैनिकों को तैनात कर देना भी सैनिकों का अपमान ही होगा। इस तरह के अपमान को पोस्ट के रचनाकार के द्वारा नहीं दिखाया गया है।

अब इस पोस्ट के दूसरे पहलू को देखें जो विज्ञापन के सम्बन्ध में है। यदि इस विज्ञापन में दिखाई जाने वाली सामग्री को आपत्तिजनक बताया जाये तो इस विज्ञापन के अलावा और भी बहुत से विज्ञापन हैं जिनमें बहुत ही ज्यादा विवादग्रस्त और आपत्तिजनक सामग्री दिखाई जा रही है। पोस्ट में इस तरह के किसी और विज्ञापन को आधार नहीं बनाया गया है। इसका तात्पर्य स्पष्ट है कि पोस्ट के द्वारा विज्ञापन को नहीं विज्ञापन में सैनिकों को इस तरह से दिखाया जाना मूल में है।

इसके परिदृश्य में पोस्ट लेखक को सैनिकों के प्रति सम्मान-अपमान नहीं वरन् एक चर्चा को चर्चा बनाने के लिए पोस्ट को आधार बनाया गया। देश में सैनिकों के प्रति देशवासियों में कम हो रही सम्मान-आदर-भावना का कारण ऐसे विज्ञापन तो कतई नहीं हैं। इसके पीछे मूल कारण है हमारी अपनी सोच का, यही सोच इस पोस्ट में भी दिखती है।
यदि सैनिकों के मान-अपमान की चर्चा ही करना था तो कश्मीर में हाथ बांधे खड़े और पत्थर खाते सैनिक पोस्ट रचनाकार को नहीं दिखे? दंगों में उच्चाधिकारियों के आदेश का इंतजार करते और अपने आपको अपमानित महसूस करते सैनिकों का अपमान नहीं दिखा? आये दिन आतंकवादियों को पकड़ने में जान जोखिम में डालना और फिर देश की राजनीति के कारण उन्हीं आतंकवादियों की रक्षा करना भी तो सैनिकों का अपमान ही है।

इस विज्ञापन में सैनिकों के कार्य और मोबाइल का प्रयोग कर रहे सैनिक के व्यवहार का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करें तो आसानी से ज्ञात होता है कि यदि एक मोबाइल के द्वारा किसी भी तरह से लड़ाई रुक सकती हो तो क्या बुराई है? लड़ाइयां रोकने के लिए तो समूचे देश ही प्रयत्नशील हैं, ऐसे में इस विज्ञापन के द्वारा शान्ति के संदेश का प्रचार-प्रसार करने की कोशिश क्यों नहीं की जा रही?

अन्त में बस यही कि मात्र विरोध करने के लिए विरोध नहीं करना चाहिए क्योंकि यह रास्ता गलत होता है। सैनिकों के अपमान को रोकने के लिए हम सभी को मिलकर काम करना होगा। किसी एक विज्ञापन के द्वारा सैनिकों के मान-सम्मान को रोका और बढ़ाया नहीं जा सकता है। हमें अपनी सोच को विकसित करना होगा और सार्थक दिशा में अपनी सोच को बढ़ाना होगा।

नमस्कार...पुनः अगले रविवार को एक और पोस्ट विश्लेषण के साथ


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रविवार, 26 सितंबर 2010

पोस्ट का विश्लेषण -- शब्दों का विलोपन चिंता का विषय है

आज एक पोस्ट विश्लेषण के साथ आपके सामने पेश है। पिछले एक सप्ताह में बहुत सी पोस्ट देखीं कुछ पसंद आईं और कुछ पसंद नहीं आईं। इस समय देश में दो-तीन मामले छाये हैं और ब्लॉग संसार भी इससे अछूता नहीं है। कॉमनवेल्थ और अयोध्या ऐसे ही मुद्दे हैं। इन पर कई पोस्ट देखीं किन्तु ऐसा कुछ नहीं दिखा जिसका विश्लेषण किया जा सके। काफी मेहनत के बाद कुछ पोस्ट को छांटा गया और फिर उनमें से एक को चुन कर उसका विश्लेषण आपके सामने रखा है।

कृपया इसे बिना किसी पूर्वाग्रह के पढ़ा जाये। इसके पीछे हमारा कोई विशेष मन्तव्य नहीं रहा, बस इस पोस्ट को पढ़ने के बाद लगा कि इसका विश्लेषण इस प्रकार से किया जाये, वही आपके सामने है।

पहले मूल पोस्ट सम्बन्धित रचनाकार का आभार व्यक्त करते हुए और इसके बाद हमारे द्वारा किया इस पोस्ट का विश्लेषण।

पढिये और अपने विचार-सुझाव भी दीजिएगा।

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ब्लॉग का नाम -- अभिव्यक्ति
रचनाकार -- हिमानी


शब्दों से हमारा रिश्ता बहुत ख़ास होता है . लेकिन इस रिश्ते का महत्व तब तक एक रहस्य बना रहता है जब तक की कोई ऐसी परिस्थिति न आन पड़े कि हमारे पास भावनाए हो और शब्द न मिले. वो एक अनमना सा पल जब अचानक शब्द गले तक पहुँच कर फिसल जाये जुबान तक आ ही न पाए. कितनी तकलीफ से भर जाता है मन , मन की बात कहने को जुबान व्याकुल सी हो जाती है लेकिन दिमाग है कि एक भूलभुलैया में खो जाता है . शब्दों की भुलभुलिया . जहाँ अपनी भावनाओ को सही शब्द दे पाना एक मुश्किल से भरा फैसला होता है.


ये बातें मैं किसी प्रेम प्रसंग या किसे कहानी के वश में होकर नही लिख रही हूँ, बल्कि पिछले कुछ दिनों से एक अखबार के दफ्तर में काम करते हुए, हुआ एक अनुभव है , जहाँ शब्दों के लिए शब्दों के ही बीच में हर रोज एक जंग सी होती है. सभी के सुझाये गए शब्दों की अपनी एक वजह है. उनकी बोली, उनका परिवेश,उनकी पढाई .....और फिर हर शब्द के साथ काम करने वाली उनकी निजी सोच. मगर उस एक वक़्त जरुरत होती है हर तरह से फिट एक अदद शब्द की. शब्द मिलने के बाद उसकी लिखावट पर चर्चा. कहीं छोटा उ कही बड़ी ई. हालाँकि हर अखबार की अपनी एक स्टाइल शीट होती है लेकिन फिर भी हिंदी के अख़बारों में भाषा गत शुद्धता को लेकर बहुत सारा विरोधाभास है ....पढाई के दिनों में हमें अच्छी अंग्रेजी के लिए द हिन्दू पढने को कहा जाता था लेकिन वही हिंदी को लेकर हम अपनी अशुधता को दूर कर सके उसके लिए किसी एक भी अखबार का नाम ध्यान नही आता . ख़बरों की अपनी अलग पहचान के साथ अखबार या चैनल की पहचान उसकी भाषागत शैली के साथ भी जुडी है.मीडिया में हर बढ़ते दिन के साथ नए नए प्रयोग हो रहे है अलग तरह के कोलुम्न्स ले आउट लेकिन भाषा को लेकर सिर्फ एक निजी सोच और समझ है वास्तव में सही क्या है इसका फैसला एक बड़ी बहस का बाद भी न निकले शायद. कुछ आगे बढ़कर कहीं कहीं तो हिंदी लिखने के साथ भी अजीब गरीब आसान नुस्खे अपनाये जा रहे है. एक तर्क ये होता है की वही लिखना है जो पाठक को समझ में आये. लेकिन समझाने का ये कौन सा तरीका है की शब्द की बनावट ही अपने हिसाब से तय कर ली जाये. और फिर आम भाषा बोलचाल की भाषा और अखबार और चैनल की भाषा में कुछ तो फर्क होता है न . मुझे लगता है कि यंग इंडिया का मीडिया बनने से पहले शायद इंडिया का मीडिया बनना ज्यादा जरुरी है क्योंकि यंग इंडिया भी इंडिया को खोना नही चाहता वो अपने जुगाड़ करना अच्छे से जानता है उसके लिए इंडिया की भाषा, संस्कृति को idiotik बनाना सही नही होगा.
शब्द भी बाकी चींजों कि तरह हमारी अनमोल धरोहर है उस एहसास से ही मन मायूस हो जाता है कि कहीं कोई शब्द खो गया है
प्रोयोगों के इस दौर में झांक के देखेंगे तो एक गहरी खाई है जिसमे बहुत सारे शब्द गिरा दिए गए है उन्हें वापिस लाने की कोशिश करनी चाहिए .............ये कोशिश कामयाब होना भी निहायत जरुरी है ताकि शब्दों के आंचल में हमेशा हमारी भावनाओ की बयाँ करने के लिए जगह रहे।
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इस पोस्ट को मूल रूप में इस लिंक पर क्लिक करके देखा जा सकता है.


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ये रहा उक्त पोस्ट का विश्लेषण
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ताकि छोटा ना हो शब्दों का आंचल, इस शीर्षक से एक अजब सी अनुभूति हुई और इस पोस्ट को पढ़ने की प्रेरणा दी अथवा मजबूरी पैदा की, यह अलग विषय है। पोस्ट को देखा और प्रारम्भिक पंक्तियों से लगा कि लेखिका कुछ स्पष्ट करना चाहती है, जिसको तर्कों और तथ्यों के माध्यम से देखा जायेगा किन्तु आगे ऐसा नहीं हुआ।

अंग्रेजी के द हिन्दू से निकल कर हिन्दी में अखबारों की कमी (ऐसे समाचार-पत्र जिन्हें भाषाई शुद्धता के लिए जाना जाये) देखती लेखिका शायद उस जमाने के जनसत्ता से अथवा साहित्यिक पत्रिका धर्मयुग से परिचित नहीं रही हैं। पत्रिका की बात न करें तो जनसत्ता को हिन्दी भाषाई शुद्धता और उत्कृष्ट जानकारी के लिए आज भी जाना जाता है।

पोस्ट में समाचार-पत्र कार्यालय में काम करने के अनुभव का जिक्र हुआ तो लगा कि लेखिका हिन्दी भाषाई शुद्धता को स्पष्ट करते हुए कोई विशेष खुलासा करेगीं पर वह भी ‘इंडिया’ की भाषा के फेर में पड़ गईं। इंडिया को यंगिस्तान बना देना यंग इंडिया (अंडरगारमेंट वाला नहीं बल्कि नौजवानों वाला) की भावी योजना हो सकती है और इसी सोच में वह भाषा संस्कृति की परवाह किये वगैर उसे इडियोटिक (Idiotik) (लेखिका के शब्दों में) बना रहा है।

यदि शब्दों की गुम होती स्थिति को, मीडिया की भाषाई अशुद्धता को भारत की भाषा के रूप में देखा जाता तो गलतियां दिखतीं पर यहां तो ऐसा नहीं हुआ। इंडिया के यंग और यंग इंडिया के मीडिया की चर्चा होती रही। ऐसे में शब्दों की, भाषा की अशुद्धियां कहां से दिखतीं?

यह बात अवश्य है कि लेखिका द्वारा एक सार्थक प्रयास किया गया और एक ऐसे विषय को उठाया गया जिसकी ओर हमारा ध्यान बिलकुल भी नहीं जा रहा है। मीडिया वह चाहे प्रिंट हो अथवा इलेक्ट्रानिक, भाषाई-शाब्दिक अशुद्धता व्यापक रूप से फैला रहे हैं। लेखिका द्वारा अपने कार्यानुभव के दौरान देखी गई भाषाई-शाब्दिक अशुद्धियों के उदाहरण दिये गये होते तो और बेहतर होता।

वैसे इन दिनो तो क्या हिन्दी समाचार-पत्र और क्या अंग्रेजी समाचार-पत्र सभी भाषाई-शाब्दिक अशुद्धता से भरे पड़े हैं। हिन्दी समाचार-पत्रों की बात हो रही है तो उनके द्वारा हो रही कुछ त्रुटियों के उदाहरण--
1-एक लाश तालाब में तैरती पाई गई -- यहां तैरना एक क्रिया है जो किसी भी जीवित के द्वारा ही हो सकती है। देखा जाये तो लाश उतरा तो सकती है किन्तु तैर नहीं सकती है।
2-मजिस्ट्रेट द्वारा भगाई गई लड़की के बयान दर्ज -- यहां लग रहा है कि लड़की मजिस्ट्रेट द्वारा भगाई गई हो।

शब्दों के विलोपन की समस्या का उठाया जाना लेखिका का साधुवादपूर्ण कदम कहा जा सकता है। हम अपने आसपास से नित्य ही कुछ शब्दों को गायब होता देख रहे हैं। राष्ट्रकुल खेल अथवा राष्ट्रमंडल खेल गायब है और बच रहा है तो कॉमनवेल्थ गेम्समोटरसाइकिल किसी को याद नहीं बाइक सभी की पसंद हो गई है। कैलकुलेटर को कैल्सी और लैपटॉप को लैपी यही यंग इंडिया पुकारता दिखता है।

इस तरह के दौर में लेखिका की चिन्ता जायज है कि शब्द भी बाकी चींजों कि तरह हमारी अनमोल धरोहर है उस एहसास से ही मन मायूस हो जाता है कि कहीं कोई शब्द खो गया है
प्रोयोगों के इस दौर में झांक के देखेंगे तो एक गहरी खाई है जिसमे बहुत सारे शब्द गिरा दिए गए है उन्हें वापिस लाने की कोशिश करनी चाहिए .............ये कोशिश कामयाब होना भी निहायत जरुरी है ताकि शब्दों के आंचल में हमेशा हमारी भावनाओ की बयाँ करने के लिए जगह रहे।

पुनः अगले रविवार को किसी एक पोस्ट के साथ मिलने की प्रत्याशा सहित


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सोमवार, 20 सितंबर 2010

प्रत्येक रविवार को किसी एक पोस्ट का विश्लेषण यानि कि पोस्टमार्टम



आज इस पोस्ट के माध्यम से सिर्फ जानकारी बांटी जा रही है। इस ब्लॉग को हमने अपने जन्मदिन १९ सितम्बर २०१० को शुरू किया है। (हालाँकि समय के कारण ये पोस्ट २० सितम्बर को समाप्त हो रही है)

सोचा ये था कि १९ तारीख पूरी तरह गुजर जाने के बाद ही इसमें जानकारी पोस्ट करेंगे। ये ब्लॉग पूरे एक सप्ताह में हमारे द्वारा पढ़ी जाने वाली विभिन्न पोस्ट में से किसी भी एक पोस्ट का विश्लेषण प्रस्तुत करेगा।

चित्र गूगल छवियों से साभार

यहाँ ये बताना आवशयक है (कानूनी सूचना के जैसा) कि इस ब्लॉग पर किसी की भी पोस्ट हो सकती है। किसी एक पोस्ट का ही विश्लेषण होगा। ब्लोगर छोटा, बड़ा, नया, पुराना कोई भी हो सकता है। किसी के साथ पूर्वाग्रह न रख कर पोस्ट का विश्लेषण होगा और आपसे भी अनुरोध है कि यहाँ पर की जाने वाली पोस्ट का विश्लेषण आप भी बिना किसी पूर्वाग्रह के पढेंगे।

ब्लॉग वार्ता, ब्लॉग चर्चा आदि जैसे ब्लॉग होने के बाद भी इसको बनाने का मकसद बस इतना है कि इसके द्वारा किसी ब्लॉग का नहीं सिर्फ किसी एक ही पोस्ट का विश्लेषण हो। इसके पीछे का कारण एक और है कि कई बार टिप्पणी के द्वारा सारी बात स्पष्ट नहीं हो पाती है तो उसको इस ब्लॉग में विश्लेषित की गई पोस्ट में किया जा सकता है।

विशेष ध्यान देने वाली बात ये है कि इस ब्लॉग पर पोस्ट का विश्लेषण सप्ताह में सिर्फ एक दिन रविवार के रविवार ही किया जाएगा। समय संभव होगा तो रात को ९ बजे से १० बजे के बीच।

आइये हमारे जन्मदिन पर शुरू एक और ब्लॉग का आप समर्थन करिए और पोस्टमार्टम -- पोस्ट विश्लेषण का मजा लीजिये।


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